पंक्ति

।।श्रीधरं माधवंगोपिकावल्लभं, जानकीनायकं रामचंद्रभजे।।

आज कुछेक समय के बाद पुनः अवसर मिला है की कुछ हिंदी में लिखें।

मुंशीजी कृत ईदगाह पढ़ी तो दो मार्मिक पंक्तियाँ मिलीं जो हर पाठक को भावातिरेक से भर देती हैं:

"और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, ख़ूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ।"

प्रगल्भ अर्थात चतुर, चतुर प्रेम ऐसा जो ह्रदय की सारी कसक ढेर सारे शब्दों में कह जाए, और श्रोता को प्रतीति हो कि सब साँचा है। वह प्रेम जिसके पास भावनाएं ढेर सारी हों जो शब्दों में व्यक्त हो पाएं तो वह अप्रतिम रचना हो, परन्तु शब्द सिमित हों, वह प्रेम जो मन के गर्भ में रच बस गया हो, उस प्रेम का अलग सुख होता है। 

इससे पहले हम विषयांतर हो जाएँ, अपनी भी पंक्तियाँ लिख देते हैं:

"क्या लिखूं ऐसा जो,

न देखा गया हो न सुना गया हो,

क्या लिखूं ऐसा सुंदरता को बखान कर

जो लिखा ही न गया हो,

जो बोल सबसे छूट गए हों,

क्या लिखूं जो किसी के जेहन तक में आया न हो,

ऐसा क्या लिखूं जो शब्द बस मेरे हों

और बयां कर सकें तुमको!"

आशा है अच्छा लगा हो। कुछ सलाह हो तो जरूर बताएं।

सधन्यवाद,

शशांक।

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